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आर्यन

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विभु पांडे

"बस माँ, आखिरी पतंग है, जैसे ही कटेगी वापस आ जाऊंगा" बिना एक टक नीचे देखे आर्यन ने छत से चिल्लाते हुए जवाब दिया । आर्यन अपने घर का पहला पतंगबाज़ नहीं था, इस छोटे शहर बनारस में उसके बाप दादा ने भी पतंगबाज़ी में उस छत की भौकालियत बनाई हुई थी । पिता जी बैंक में क्लर्क थे, चौबीस साल की उम्र में ही बैंक में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी पर अब सबने कहीं न कहीं मान लिया था कि वह रिटायर भी क्लर्क के रूप में ही करेंगे । पिता जी ने आर्यन को सात साल की उम्र में ही पतंग उड़ाना सीखा दिया था । नौ साल बाद भी, ठंड के तीन महीनों के अंतराल, कभी मीठी तो कभी तीखी धूप सेकने के बाद आर्यन वसंत ऋतु का स्वागत हमेशा पौन किलो काला होके करता । माँ बोलती "कम से कम एक पतंग उड़े तो जाना छत पर" । "पर माँ, हर पतंगबाज़ ऐसा सोचेगा तो कहीं संझा ना हो जाए" । हारी मान माँ गुस्से में खाना छत पर ही पहुंचाती, "सुन, अचार सुख रहे है देखते रहना, और रोटी दाएं हाथ से पकड़!" एक हाथ में मांझा और एक हाथ में रोटी की चुंगी लिए आर्यन को जब पतंग मौका देती तब रोटी से एक निवाला तोड़ के खाता ।

आर्यन को अब पतंग के पेंच लड़ाने की सारी नाज़ुकियत पता चल चुकी थी, कब पतंग को चक देना है, कन्नी पतंगे को ऊपर से पटकना है, अब तक तो पतंग बस लूटे हुए मांझे से उड़ाता था, जब पता चला बाजार में चीनी नया मांझा आया है तो पिता जी से ज़िद कर वो भी मंगवा लिया । पढ़ाई में ठीक था तो माता पिता भी ज़्यादा टोका-टाकी नहीं करते थे । उसे पूरा विश्वास था कि मांझे के रंग से फर्क पड़ता है कि पेंच कैसे लड़ाया जाए पर यह बात की चर्चा किसी से नहीं करता । खैर, जितनी खुशी उसे 5 पतंग काटने में होती उससे कहीं ज़्यादा गम 1 काटने में । कटी हुई पतंग की डोरी वापस परेती में बांधने में उसके चेहरे पर आक्रोश ज़रूर दिखता पर उसका दोष कभी डोरी, पतंग या बवंडरिया हवा को नहीं देता ।

कुछ दिन ऐसे भी होते जब उसकी पतंग का सामना चाहे किसी भी दूसरी पतंग से हो, कंठा, गिलासा, बद्धा, यहां तक कि बड़की वाली चांद-तारा, कोई पतंग उसके सामने टिक नहीं पाती । माँ को चार बजे बोला था कि जब यह पतंग कटेगी तो वापस आ जाऊंगा पर अब तो गोधूलि बेला का समय हो रहा था । आसमान में बस एकलौती उसकी पतंग ही रह गई थी । पतंग अपराजित ज़रूर थी पर बिलकुल एकाकी, आर्यन में जीत का भाव तो था पर परेती से धीमे धीमे पतंग वापस उतारना उसे एक खोखलापन का भाव देता । उतारी हुई पतंग के कन्ने ने जब परेती को चूमा, तब तक जीत का भाव भी जा चुका था । अपनी विजयी पतंग के साथ सीढ़ी उतरते हुए उसने खुद को समझाया, "चलो जो भी हो, यह भाव पतंग कटने के बाद वाले आक्रोश से तो बेहतर ही है ।"

रात को अपना होमवर्क पूरा कर जब आर्यन सोने आया तो उसने पिता जी को गर्व से बताया, "पापा, आज मैंने पूरा आसमान सफा-चट कर दिया, कोई भी पतंग नहीं बची थी तो मुझे मजबूरान अपनी अपराजित पतंग उतारनी पड़ी ।" इस पर पिता जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "जब मैं आसमान में आखिरी पतंग काट देता था, तो अपने पतंग की डोरी भी उसके साथ तोड़ देता था ।" यह कहने के बाद पिता ने करवट ली और मन में सोचा कि जीत के अकेले रहने से अच्छा तो हार के बाद साथ रहना है । पिता ने अपना ख्याल तोड़ते हुए झटके से बोला, "चलो अब सो जाओ! कल स्कूल है" इससे पहले कि आर्यन दूसरा सवाल पूछ पाता ।

"हां पापा, आवाज़ साफ़ आ रही है, तबियत कैसी है अब आपकी?" आर्यन ने फोन पर पूछा । "आराम तो है बेटा, अमेरिका से वापस आने की कोई तारीख़ पक्की हुई तुम्हारी? मोनू को भी अभी तक सामने से नहीं देखा ।" आर्यन को अपने प्रोजेक्ट की डेडलाइन का अंदाज़ा तो था पर उसने पिता जी को बताना सही नहीं समझा । आवाज़ में उत्साह भरने की कोशिश करते हुए बोला, "मोनू बिल्कुल बढ़िया है पापा, अब बकईयाँ भी चलने लगा है ।" पर जब झूठी उत्साह की कोशिश नाकाम हुई तो उसने हारी हुई आवाज़ के साथ बोला, "पापा, कितनी बार तो बोल चुका हूं आप माँ को लेकर यहीं आ जाओ ।"

"बेटा यह परिवार, यह मोहल्ले से ही मैं हूं, इसको छोड़ना मेरे बस की बात नहीं ।" आर्यन ने जब जवाब दिया तो उसकी आवाज़ में एक तीखापन था, "पर पापा, हर बार इंसान के पास विकल्प नहीं होता । पहले कभी मैंने ज़िक्र नहीं किया पर यदि आपका बैंक में प्रमोशन होता तो आपको भी बनारस छोड़ना पड़ता ।" इसपे पिता ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, "मैनेजर साहेब तो आज भी मिलने पर बोलते, 'क्या गुरु, लोग प्रमोशन के लिए इतने पापड़ बेलते, और आपने बस ट्रांसफ़र के चलते प्रमोशन नहीं लिया ।', पर बेटा हमें लगा साला जीत के अकेले रहने से अच्छा तो हार के बाद साथ रहना है ।"