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प्रतिस्पर्धा से लेवरेज: एक दृष्टिकोण परिवर्तन

लेखक: विभु पांडे

जब एक सीमित संसाधन को लेकर कॉम्पिटिशन या प्रतिस्पर्धा होती है तो किसी की हार किसी की जीत होना लाज़मी है। यह हार-जीत क्षणिक है जो खुद में एक रोचक विषय है पर यह इस अभिव्यक्ति का संदर्भ नहीं। यह हार-जीत का समीकरण समाज हमें कुछ इस तरह घुला के पिला देता है कि व्यक्ति वहाँ भी दूसरे की सफलता से निराशा या ईर्ष्या महसूस करता है, जहाँ पर सीमित मात्रा में सफलता नहीं होती। वयस्क जीवन के अधिकांश पहलु ऐसे होते हैं जहाँ किसी की सफलता किसी भी दूसरे की हार निश्चित नहीं करती। प्रतिस्पर्धा में हर व्यक्ति को एक रोटी का बड़े से बड़ा हिस्सा चाहिए। शायद रोटी का माप सीमित नहीं, इसे बढ़ाया जा सकता है, पर सबका ध्यान उसकी रोटी पर अटका हुआ है जिसकी रोटी का हिस्सा स्वयं से बड़ा है। किसी प्रतिस्पर्धी का ध्यान इसपे नहीं कि शायद यह प्रतिस्पर्धा एक प्रतिस्पर्धा ही नहीं।

कल हमारे द्वारा ही नहीं, हमारे बाप दादा द्वारा झेली हुई कठिनाइयाँ आज हमारे समाज और समझ को किस तरह प्रभावित करती है और अंततः देश के आर्थिक व्यवहार की रूपरेखा में कैसे भूमिका अदा करती है, यह काफी रोचक है। इस पहलु में, किराया-आधारित और लाभ-आधारित अर्थव्यवस्थाओं के बीच का विरोधाभास, जिसे आर्थिक लेन-देन के रूप में "ज़ीरो-सम" या "पॉज़िटिव-सम" खेल के रूप में वर्णित किया जाता है, महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। किराया आधारित एक उपयुक्त अवधि इसलिए भी है क्योंकि एक व्यक्ति को कमाने के लिए, दूसरे को समान राशि का त्याग करना होता है। यह सोच जब एक जीवन शैली बन जाती तो परिणामस्वरूप "अनावश्यक" प्रतिस्पर्धा वाला माहौल उत्पन्न हो सकता है, जिसमें विजेताओं के प्रति अक्सर ईर्ष्या होती है।

भारत देश में इस "ज़ीरो-सम" खेल का दृष्टिकोण की जड़ें हमारे सीमित संसाधनों की कठिन वास्तविकता में खोजी जा सकती है। किसी नामी स्कूल में हजारों बच्चे के बीच स्पर्धा, फिर किसी उच्चस्तरीय कॉलेज में लाखों के बीच कड़ी प्रतियोगिता, और अंतिम चरण में लोकप्रिय सरकारी नौकरी की चंद सीटें। बचपन से वयस्क जीवन तक बढ़ते उम्मीदवार की संख्या और उतने ही संकुचित होते द्वार का विरोधाभास "ज़ीरो-सम" मानसिकता को और बढ़ावा देता है। उस सामाजिक दृष्टिकोण को, जहाँ एक की सफलता अन्यों की पराजय का कारण बनती है, उसे और मजबूत करता है। यह प्रतिस्पर्धा, यह हार-जीत वयस्क होने तक हमारे अनुभव का एक बहुत बड़ा और केंद्रीय भाग होती है। जब हम वास्तविक जीवन में कदम रखते है हम इस सीमित अनुभव को सभी अन्य पहलु पर व्यापित करते हैं। कई व्यक्तियों को यह समझने में थोड़ी देर हो जाती है कि अब प्रतिस्पर्धा खत्म हो चुकी। तसल्ली की बात यह है कि कई अपने जीवनकाल में समझ जाते हैं।

कई कार्यशेत्र ऐसे होते हैं जिसमें सफलता और तरक्की की सीमाएं नई उपलब्धियों के साथ लचीली हो सकती हैं, जिसे अपने योग्यताओं के माध्यम से बढ़ाया जा सकता है। यह अन्यों को भी विकास के रास्ते के लिए एक मंच प्रदान करती है। जैसे अमेरिका एक "प्रॉफिट-बेस्ड" इकोनॉमी है, जहां आम भाव यह होता कि एक व्यक्ति या संगठन की सफलता अन्यों के लिए आर्थिक अवसरों का सृजन कर सकती है, बिना किसी की लागत पर। यह "पॉजिटिव-सम-गेम" अन्यों के मन में रोमांचक संभावनाओं और अवसरों को दस्तक देता है, न कि ईर्ष्या को, इसे आर्थिक लेन-देन के रूप में "लेवरेज" कहते हैं। बस प्रतिस्पर्धा का दृष्टिकोण लेवरेज के रूप में करके हम कथा को बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर एक दोस्त एक सफल स्टार्टअप या नया उद्योग शुरू करता है, तो यह व्यक्तिगत रूप से सीखने का स्रोत या सहयोग का अवसर बन सकता है, न कि ईर्ष्या का कारण।

अंततः हमें दूसरों की सफलता का जश्न सिर्फ तब तक नहीं मनाना चाहिए जब तक हमारे दृष्टिकोण में वह हमसे कम सफल है। समाज के लालन-पालन को त्याग कर, दृष्टिकोण को प्रतिस्पर्धा से लेवरेज की ओर शिफ्ट करना एक चुनौती जरूर है, पर यह अभ्यास जितना निःस्वार्थ है उतना स्व-लाभकारी भी।