सामाजिक सुधार की जटिलता
लेखक: विभु पांडे
1920-30 दशक के अंतराल अमेरिका में शराब के उपर प्रतिबंध लगाने की चर्चा हो रही थी। इस दौरान दो बल सक्रिय थे और ऐसा प्रतीत होता था मानो दोनों का एक ही लक्ष्य है, पर दोनों बलों की प्रेरणा बिलकुल अलग थी। यह बल हर समाजिक आंदोलन में किसी ना किसी रूप में मौजूद रहते हैं और इन दोनों विरोधाभासी बलों के बीच का संवाद किसी भी सामाजिक सुधार आंदोलनों के पीछे सूक्ष्म गतिविधियों को उजागर करता है। अर्थशास्त्री इन बलों को "बैपटिस्ट" एवं "बूटलेगर्स" का दर्जा देते हैं। अमेरिका के संदर्भ में, बैपटिस्ट वह ईसाई थे जिनकी यह गहन मान्यता थी कि मदिरा समाज के नैतिक तंत्र को बिगाड़ देगी और इसलिए इसपे प्रतिबंध लगना चाहिए। दूसरी ओर, बूटलेगर्स वे लोग थे जो अवैध शराब की तस्करी करते थे और प्रतिबंध से उनके अवैध कारोबार को भारी लाभ हुआ। विडंबना यह है कि दोनों मुद्दे पर एक ही पक्ष में खड़े थे, बूटलेगर्स अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए और बैपटिस्ट अपने नैतिक्ता के लिए|
अपने स्वार्थी लक्ष्य को पाने के लिए बूटलेगर्स बैपटिस्ट को बारीक रणनीतियाँ से प्रभावित करते है| बैपटिस्ट के नैतिक लक्ष्यों को अपने स्वार्थ के सांचे में समा लेते हैं, और कुशलतापूर्वक अपने संसाधनों से आंदोलनों की दिशा को भ्रमित कर देते हैं।
हाल ही में भारत में पेश किए गए कृषि कानूनों में भी यह अवधारणा गुंजती है। हालांकि यह कानून खुद में विवादित है, कानून के विपक्ष में खड़े दोनों बलों का विरोधाभास साफ़ था। इस संदर्भ में बैपटिस्ट वह किसान है, जिन्हें अपनी पारंपरिक प्रथाओं में परिवर्तन और MSP को लेकर चिंता थी कि बड़ी MNCs उन्हें किसी रूप में सुरक्षा तंत्र प्रदान करेंगी या नहीं। इस विषय में बूटलेगर्स वह बिचौलिए या उनका संगठन था जो कि मंडी में प्रचालन करते थे। कृषि कानून बिचौलिए की भूमिका को हटा इनकी आसान आय पर सीधा हमला था। सरकार द्वारा सीमित बातचीत और अस्पष्ट संचार ने बूटलेगर्स को संभवतः किसानों के डर को हवा देने का मौका दिया। अंततः सरकार को कानून वापस लेना पड़ा।
इस मामले में सरकार को बूटलेगर्स द्वारा भले ही मात झेलनी पड़ी, कई मामलों में एक पॉलिटिकल पार्टी बूटलेगर की भूमिका अदा करती है। खासकर तब जब वह धर्म का उपयोग एक उपकरण के रूप में करती हैं। इस संदर्भ में बैपटिस्ट वह नागरिक हुए जो अपनी नैतिक समझ से समाजिक सुधारों का समर्थन करते हैं। एक बूटलेगर पॉलिटिकल पार्टी इन नागरिकों के नैतिक उर्जा को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती है। हर मुद्दे पे धर्म का ठप्पा लगाकर अपनी पार्टी की शक्ति को मजबूत करती है या धार्मिक मूल्यों को उकसा कर नागरिकों के समर्थन का लाभ उठाती है|
बूटलेगर के कुशलतापूर्वक तरीकों को समझना पेचीदा इसलिए भी है चुंकी अक्सर वह बैपटिस्ट की नैतिक ऊर्जा की कवच में अपने स्वार्थी उद्देश्य को छिपा लेते हैं। उदाहरण के लिए, कोई राजनीतिक पार्टी यह बोलती है की स्वदेशी व्यापारियों की सुरक्षा के लिए विदेशी उत्पाद पर प्रतिबंध लगाया जायेगा| बैपटिस्ट को यह नैतिक और ज़ाहिर लग सकता है कि यह नीति देशहित में होगी और हमारी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगी। परंतु इस संशोधन में बूटलेगर पार्टी की मुख्य प्रेरणा यह हो सकती है कि कुछ चुनिंदा व्यापारियों की एकाधिकार स्थापित हो जाए। जब तक बैपटिस्ट को आभास होता है, महंगाई या किसी और रूप में, तब तक देरी हो चुकी होती है।
इन परिस्थितियों में बूटलेगर्स की रणनीतियों का पता लगाना आम नागरिक के लिए बहुत ही जटिल हो सकता है। बैपटिस्ट की चुनौतियाँ और बढ़ जाती है क्योंकि बूटलेगर्स के पास ज्यादा संसाधन होते हैं, जैसे मीडिया को नियंत्रित कर अपनी छिपी हुई एजेंडा के दिशा में आंदोलन को मोड़ना। सोशल मीडिया भी बैपटिस्ट के लिए ज्यादा सहायक नहीं होता क्योंकि वह नागरिक को केवल उन विचारों या जानकारी से ही घेर देता है जो उनके मौजूदा धारणा की पुष्टि करे।
बूटलेगर्स की पहचान करने के लिए उम्मीद की किरण यह है कि नागरिक को उन्नत संसाधनों की जरूरत नहीं, कुछ मूल तरीके ही हैं एजेंडा को पहचानने के लिए, आवश्यकता है खुले विचार की, एकाधिक स्रोत से विश्लेषण की, खुले संवाद में सहभागी बनने की और अपनी धारणाओं को चुनौती देने की।